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होंगे ही
दो या ना दो चुनौती
कहो या डरे रहो कहने से
सहो, पूजो, हाथ जोड़ो, याचना करो
या लड़ो
जद से बाहर नहीं है कोई हादसों के

चेतन आदमी भी
घिर जाता है जिस दिन हादसों में
सारा अचेतन समाज तब अघोरी बन झूमता है
खुशियां मनाता हे
श्मशानों मे नंगा नाचता है
श्राप की शास्व॒तता पर प्रवचन सुनाता है
स्वयं पर आये तमाम दुख-हादसे भूल वह
अनैतिक रूप से घेरता है
चेतन आदमी को

चेतन आदमी अपने चहुँ ओर देखता है
उन्ही विद्रूपताओं की घेरेबंदी
देखता है और हंसता है
हंसता है और तेज कर देता है चोट
हादसों में रहते हुए
हादसों को जीते हुए वह
चेतना के शिखर से देखता है
नीचे से बहते हुए हादसे

अचेतन समाज दरअसल नहीं जानता

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 57