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मुझे उम्मीद सिर्फ स्त्रियों से है


कि चहु ओर फंली वैमनस्यता को
वे ही कम करेंगी

वे ही समझाएंगी बचाएंगीं बच्चों को
गाली बाज होने से

वे बांट के जहर को फंलने से रोकेंगी
वे मनुष्यता के परचम को खोल कर
आसमान में लहरा देंगी एक दिन

वे नफरत के जलते सूर्य पर
प्रेम की अंतहीन बौछार करेंगी
ठिठुरती मनुष्यता को ओबढ्ोा देंगी
करुणा का गर्म लिबास

बे जलते भटकते लड़ते राजनीतिक पुरुष को
किसी दिन
स्‍त्री में बदल देंगी

मुझे डर सिर्फ एक है
पुरुष की राजनीति में उलझी स्त्री
कहीं खुद पुरुष न होने लगे।

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 101