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व्यवस्थित करनेवाली कोई एक सत्ता हो। ज्ञान-कृत पुनरुद्भावना और स्मृति के लिए पूर्व प्रत्ययो के साथ वर्तमान प्रत्ययो का मिलान करनेवाला कोई एक स्थिर द्रष्टा चाहिए। इस समय मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं कल घूमने गया था, पारसल प्रयाग मे था, इत्यादि। इसका मतलब यही हैं कि कल घूमने और पारसाल प्रयाग मे रहने का अनुभव करनेवाली वही था जो इस समय सोच रहा है। यदि मन और आत्मा क्षणिक ज्ञानो का ही नाम होता तो यह असंभव होता। यदि आधिभौतिक पक्ष के लोग यह कहे कि


  • पाश्चात्य आत्मवादी मनोविज्ञानियो के आत्मसत्ता सम्बधी ये प्रमाण वे ही है जो न्याय मे दिए गए है।

दर्शनस्पर्शनाभ्याभेकार्थग्रहणात् ३ । १ । १

तद्व्यवस्थानादेवात्मउद्मावादप्रतिषेध ३ । १ । ३

सव्यदृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात् ३।१।७

इसी प्रकार स्मृति का व्यापार भी प्रमाण में लाया गया है---

तदात्मगुण सद्भावादप्रतिषेधः ३।१।१४

बात यह है कि जिस प्रकार पाश्चात्य ग्रथो मे मन और आत्मा के व्यापारो मे कोई भेद नहीं किया गया है उसी प्रकार न्याय मे भी अतःकरणविशिष्ट आत्मा का ही विचार हुआ है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि आत्मा के ही व्यापार कहे गए हैं।

पर साख्य और वेदांत मे शुद्ध आत्मा अकर्ता कहा गया है। उसमें कोई व्यापार नहीं, वह द्रष्टा मात्र है। व्यापार करता है मन, आत्मा तो केवल उसके व्यापारो का साक्षी या देखनेवाला है। जैसे, मैं