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साँपो का रेगना, हिरन का चौकड़ी भरना, शेर का उछलना देखने से यह बात ध्यान में आ सकती है। रीढ़वाले जंतुओ को सजीव हड्डियाँ होती है जिनके भीतर रक्त का संचार होता है। वे शरीर के कोमल भागो की रक्षा करती है। ढाँचे की इसी विशेषता के कारण ये विना रीढ़ के जतुओ से इतने बड़े चढ़े होते है। बहुखंड कीटो के समान इनका शरीर भी दो समान पाश्वर्वो( दहने और बाएँ) मे बँटा होता है और कई खंड के जोड़ से बना होता है। इनके शरीर के भी तीन विभाग होते है---सिर, वक्ष और उदर। पर चारी अंग ( हाथ पैर ) चार से अधिक नही होते अर्थात् उनका एक एक जोडा दोनों ओर होता है--चाहे वह मछली के मुख्य परो के रूप मे हो ( इन जोड़ेदार परो के अतिरिक्त मछली के और छोटे छोटे पर होते है जिनका कोई हिसाब नही होता ), चाहे चिड़ियों की टाँगो और डैनो के रूप मे, चाहे चौपायो के अगले और पिछले पैरो के रूप मे और चाहे मनुष्यो के हाथ पैर के रूप मे। इन सब जीवो के ढॉचे एक ही आदिम ढाँचे से क्रमश: उत्पन्न हुए हैं।

विकाश-परंपरा के अनुसार बिना रीढ़वाले जंतुओ से ही क्रमश रीढ़वाले जंतुओ की उत्पत्ति हुई है। पहले बिना रीढ़वाले और रीढ़वाले जंतुओं के बीच के जीव हुए होगे जिनके शरीर के भीतर कुछ कुछ पंजराभास प्रकट हुआ होगा। इस प्रकार के कुछ अवशिष्ट जीव अब तक पाए जाते हैं। समुद्र मे थैली के आकार का एक जंतु होता है जो चट्टानो पर चिमटा रहता है। इसके एक मुँह और एक उत्सर्ग छिद्र होता