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हुए सादे कोशो के रूप मे ही प्रकट हुए। जिस स्थान पर अणुप्रवाह के योग से उस रासायनिक क्रिया का विधान होने लगा जिससे गंध का अनुभव होता है वहाँ व्राणोद्रिय ( नाक ) की उत्पत्ति हुई। जहाँ वह रासायनिक क्रिया होने लगी जिससे म्वाद का अनुभव होता है वहाँ रसनेद्रिय का विधान हुआ। इसी प्रकार जहाँ आलोकग्रहण की ही भौतिक क्रिया बराबर होने लगी वहाँ उस जटिल यंत्र का विधान हुआ जिसे ऑख कहते है और जिसके द्वारा पदार्थों के आकृतिबिब का ग्रहण होता है। विशेष प्रकार की वायुतरंगों का ग्रहण जहाँ होने लगा वहाँ कानो की रचना हुई। इन इंद्रियों मे सूक्ष्म से सूक्ष्म सपर्क के ग्रहण की शक्ति का विकाश देखा जाता है। व्राणेद्रिय द्रव पदार्थ के अणु के ३०००,०००, ००० वे भाग तक का अनुभव कर सकती है। चक्षुरिंद्रिय एक मिनट में सवा करोड़ मील के लगभग चलनेवाली आलोकतरंग का ग्रहण करती है।

अब तक जिन क्षुद्र जंतुओ का वर्णन हुआ है उनका शरीर यहाँ से वहाँ तक एक होता है, खंडो में विभक्त नही होता। उनसे उन्नत कोटि के बहुखंड कीट होते है जिनका शरीर बहुत से जोड़ो से मिल कर बना जान पड़ता है, जैसे, मिट्टी के केचुए, जोक, कनखजूरे, केकड़े, भिड़, गुवरैले, फतिगे, चीटियाँ इत्यादि। जंतुओ की बनावट मे ध्यान देने की बात यह है कि मुख ही एक ऐसा द्वार है जिससे पहले पहल वाह्य जगत् का संपर्क होता है अतः उसी के पास मुख्य इंद्रियों का विधान होता है। जो भाग क्रिया में अधिक तत्पर