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मादा के गर्भाशय में जा कर गर्भकीटाणु को गर्भित करते हैं। गर्भाधान के उपरांत गर्भकीटाणु शीघ्र डिभकीट के रूप मे प्रवद्धित हो कर अलग हो जाते हैं और कुछ दिनों तक जल में तैरते फिरते है। पीछे किसी चट्टान, लकड़ी के तख्ते आदि पर जम जाते है और धीरे धीरे बढ़ कर पूरे खंडबीज कृमि हो जाते है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इन्हीं खंडबीज कृमियो से फिर छत्रक कृमि की उत्पत्ति होती है। सारांश यह कि खडबीज कृमि से छत्रक की उत्पत्ति और छत्रक से खंडबीज कृमि की उत्पत्ति होती है। प्रजनन के इस विधान को इतरेतर जन्म या 'योन्यंतर विधान' कहते है।

छत्रक कृमि से बारीक ढाँचा उन चिपटे केचुओ का होता है जो कुछ रीढ़वाले जंतुओं के यकृत और अँतड़ियो में होते है। भेड़ के यकृत में पत्ती के आकार को जो चौडा चिपटा कीड़ा होता है उसके शरीर की ओर ध्यान देने पर दहने और बाये दो सम-विभक्त पार्श्व स्पष्ट दिखाई देगे। कल्पित विभाग-रेखा के दोनों ओर बिंब प्रतिबिब रूप से प्रायः एक ही प्रकार के ढाँचे पाए जायँगे। इस प्रकार की रचना को अर्द्धाग-योजना कहते हैं। कीड़े का अगला भाग चौड़ा होता है जिसके बीचोबीच निकली हुई नोक पर मुंँह होता है। मुख की औंठ पर एक मांसल छल्ला सा होता है जिसके द्वारा यह जंतुओं के यकृत की दीवार से चिमटा रहता है। मुख की औंठ से थोड़ा और पीछे हट कर पेटे की ओर एक दरार सा होता है जो जननेद्रिय का मुख है। इसी के बीचोबीच एक तुंड या ठोठी सी होती है जो पुं० जननेद्रिय