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और अनेकरूपता का कुछ कुछ आरंभ होता है । मोनरा का शरीर मधुविदुवत् सर्वत्र एकरूप होता है पर अमीबा के शरीर पर अत्यंत महीन झिल्ली का आवरण होता है और भीतर कललरस के बीच में एक सूक्ष्म गुठली सी होती है जो यद्यपि कललरस की ही होती है पर अधिक तीव्र होती है। इस गुठली के अतिरिक्त कललरस के बीच झिल्ली से घिरा हुआ एक खाली स्थान भी होता है जो सुकड़ता और फैलता रहता है। मोनरा के समान इसकी गतिविधि और पाचन क्रिया भी कललरस की ही गति और क्रिया में होती है। अत्यंत सूक्ष्म अणुजीव या पौधे अथवा उनसे कुछ बड़े जीवो के शरीरखंड जो जल में रहते हैं और आहार के रूप में इसके भीतर जाते हैं उनके सार भाग को तो कललरस अपनी ही क्रिया से अपने में मिला लेता है और शेष भाग को बाहर निकाल देता है। इसका चलना भी कललरस ही की क्रिया से होता है अर्थात् जिस ओर शंकु या पदाभास निकलते है उस और सारा कललरस ( अर्थात् शरीर ) ढल पड़ता है। इसी प्रकार यह अपना मार्ग निकालता चला जाता है। जल में जहाँ रेत या मिट्टी के सूक्ष्म कण होते हैं वहाँ यह उन्हे बड़ी सफाई से बचा जाता है। पदभासो के निकालने का कोई निश्चित स्थान न होने से इसका आकार स्थिर नहीं होता।

ऊपर कहा जा चुका है कि कललरस का अत्यंत सूक्ष्म कण जो प्राणियों के सब आवश्यक व्यापार स्वतंत्र रूप से कर सकता है घटक कहलाता है और मोनरा या अमीबा इसी प्रकार की एक घटक मात्र है। अतः