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जाति के कुछ जंतुओ में औरों से कोई विलक्षणता देख उन्हें चुन लेते है और उन्ही के जोड़े लगाते है। फिर उन जोड़ी से जो जंतु उत्पन्न होते है उनमे से भी उनको चुनते हैं जिनमे वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पीढ़ियो पीछे एक नए रूपरग और ढॉचे का जन्तु उत्पन्न कर लेते है। जंगली। ( गोले ) नीले कबूतर से अनेक रंग ढंग के पालतू कबूतर इसी तरह पैदा किए गए हैं। यह तो हुआ मनुष्य का चुनाव या 'कृत्रिम ग्रहण' । इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे "प्राकृतिक ग्रहण" कहते है। दोनों में अतर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जतुओ को चुनता है, पर प्रकृति का चुनाव जंतुओ के लाभ के लिये होता है। 'प्राकृतिक ग्रहण' का अभिप्राय यह है कि जिस परिस्थिति में जो जीव पड़ जाते है उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते है तो रह जाते हैं, नही तो नष्ट हो जाते है। प्रकृति उन्ही जीवों को रक्षा के लिये चुनता है जिनमे स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जाते है।

हेव्ल को ही लीजिए। उसके गर्भ की अवस्थाओ का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलचारी जतुओ से क्रमश उत्पन्न हुआ है। उसके पूर्वज पानी के किनारे दलदली में रहते थे‌। क्रमशः ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थिति-परिवर्तन के अनुसार उनके अवयवो मे फेरफार होता गया यहाँ तक कि कुछ काल ( लाखो वर्ष