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उद्भिद क्या जंतु। इस मत के अनुसार जीव जंतु, पेड़ पौधे सब चेतन है, पर मिट्टी के ढेले आदि निर्जीव पदार्थों मे चेतना नहीं होती। इस सिद्धांत का यह भाव भी निकलता है कि देहवान् (उद्भिद और जंतु) पदार्थों मे आत्मा होती है। इस मन को माननेवाले प्राण, चेतना और आत्मा को परस्पर सहगामी समझते है। उनकी समझ मे जहाँ एक रहेगा वहाँ दूसरा भी अवश्य रहेगा। फेक्नर नामक तत्त्ववेत्ता ने यह सिद्ध करने तक का प्रयत्न किया है कि पौधो मे भी उसी प्रकार आत्मा होता है जिस प्रकार जंतु में, और पौधे की आत्मा में भी उसी प्रकार चेतना होती है जिस प्रकार मनुष्य आत्मा में। बात यह है कि जब क्षुद्र जंतुओ की अंतःक्रियाओ को चेतना कह सकते हैं तब पौधो की अंतःक्रियाओं का चेतना कहना ही पड़ेगा। लजालु, मक्खी पकड़नेवाले पौधे आदि की गतिविधि अत्यंत क्षुद्र जंतुओ की गतिविधि के सनान ही होती है।

( ५ ) चेतना प्रत्येक घटक में होती है।

जिस प्रकार हम सजीव घटक को अनेकघटक जंतुओं और पौधों के शरीर के मूल अणु मानते हैं, जिनके संयोग से उनके शरीर सघटित हैं, उसी प्रकार हम घटेकात्मा ( घटक की अंतःक्रिया ) को भी शरीर की आत्मा ( अर्थात् उसके उन्नत मनोव्यापारों की समष्टि ) की व्यष्टि मान सकते हैं। हम कह सकते हैं कि चेतना, धारणा आदि उन्नत कोटि के मनोव्यापार सूक्ष्म घटको की क्षुद्र अतःक्रियाओ के योगफल हैं। मैंने समुद्री अणुजीवो की परीक्षा कर के दिखलाया था कि इन मे भी उन्नत