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के साथ स्थिर कर सकते हैं। पर यदि हमें असामान्य मस्तिष्क के मनुष्यो ( जैसे प्रतिभाशाली, सनकी, जड़ या विक्षिप्त लोगो ) को लेकर विचार करने जाते है तो हमारे सिद्धांत या तो अपूर्ण या सर्वथा भ्रांत निकलते है। यही बात मनुष्यो की चेतना को जंतुओ ( विशेषतः क्षुद्र जंतुओ ) की चेतना के साथ मिलाने से होती है। ऐसा करने मे इतनी भारी कठिनाइयाँ सामने आती है कि चेतना के संबंध मे भिन्न भिन्न शरीरविज्ञानियो और दार्शनिको के मतो मे आकाश पाताल का अंतर पड जाता है। मुख्य मुख्य मतो का नीचे उल्लेख किया जाता है--

(१) चेतना केवल मनुष्य ही में होती है।

इस सिद्धांत का प्रवर्तक फरासीसी तत्ववेत्ता डेकार्ट है जिसके अनुसार विचार और चेतना मनुष्य ही के गुण है और अमर आत्मा केवल मनुष्य ही मे होती है। इस तत्ववेत्ता ने मनुष्य के व्यापार और पशु के मनोव्यापार मे भेद किया है। इसके मत मे मनुष्य की आत्मा एक विचार करने वाली अभौतिक सत्ता है जो भौतिक शरीर से सर्वथा पृथक है। पर पृथक् होते हुए भी वह मस्तिष्क के एक विशिष्ट अंश के साथ लगी रहती है जिसमे वह वाह्यजगत् के विषयो को संस्कार के रूप मे ग्रहण करे और कर्मेन्द्रियों को प्रवृत्त करे। पशुओं मे विचार करने की शक्ति नही होती, आत्मा नहीं होती। वे कौशल के साथ बैठाए हुए पुरजो की मशीन की तरह है। उनके इंद्रियसंवेदन, अंत:संस्कार और प्रवृत्ति जड़ व्यापार मात्र है जो भौतिक नियमो के अनुसार होते है।