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हैं। नीचे ऊपर जमी हुई दो झिल्लियों में से बाहरी झिल्ली ( वाह्यकला )- त्वककला हैं और भीतरी झिल्ली आशयकला है। कटोरे के आकार के द्विकलघट में जो खाली स्थान होता है वही पेट या जठराशय है और जो छिद्र होता है वही सुख है। बाहरी त्वककला ही संवेदन की एक मात्र इन्द्रिय है। इसी से क्रमशः उन्नति करते करते बड़े जीवों की ऊपरी त्वचा, इन्द्रियाँ तथा संवेदनसूत्र कार्यविभाग-क्रम द्वार बने हैं। द्विकलघट जीवों में संवेदवाहक सूत्र आदि न होते उनकी ऊपरी झिल्ली ( वाह्यकला ) के सारे घटक समान रूप से संवेदनग्राही और गतिशील होते हैं। इनमें तंतुनालगत आत्मा सब से आदिम वा प्रारंभिक रुप में रहती है।

चित्रपट केचुओं में से कुछ की बनावट तो बिल्कुल घट कृमियों की सी होती है अर्थान् उनमें संवेदनसूत्र-विधान नहीं होता। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें एक लंबा संवेदनसूत्र और एक सूक्ष्म मस्तिष्कग्रंथि भी होती है। स्पंजों की बनावट सब से विलक्षण होती है। वे अधिकतर समुद्र के तल में पाए जाते हैं। सब से क्षुद्र कोटि के जो स्पंज होते हैं वे द्विकलघट के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते। उन की झिल्ली में छलनी की तरह के बहुत से छेद होदे हैं जिनसे होकर खाद्यमिश्रित जल भीतर जाता है। वे कांड या शाखा के रूप का समूहपिंड बना कर रहते हैं जिसके भीतर जल के लिए नालियाँ होती हैं। वे चर नहीं होते हैं। उनमें संवेदन और अंगगति बहुत ही मंद होती है। इसी से पहले लोग उन्हें उद्भिद् समझ थे।