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उपयोग द्वारा, विचार और संकल्प द्वारा, ज्ञानकृत उद्दिष्ट कर्म द्वारा उत्पन्न हुई, पर पीछे धीरे धीरे वे इतनी मॅज गई कि अज्ञान की दशा मे भी प्रकट होने लगी। यहाँ तक कि वंशपरंपरा के विधान से ये आगे की पीढ़ियो से स्वभावसिद्ध सी हो गई। उन्नत जीवो की वे अज्ञानकृत क्रियाएँ जो शरीरधर्म कहलाती है (जैसे, पलको का गिराना, चलने मे पैरो का हिलाना, आदि) पूर्वज जीवो मे ज्ञानकृत थी पर पीछे स्वभावसिद्ध प्रवृत्तियो मे दाखिल हो गई। इसी प्रकार मनुष्य के वे सारे निरूपण जो स्वत सिद्ध कहलाते है (जैसे, एक ही वस्तु के समान वस्तुएँ परस्पर समान होती है) उसके पूर्वजो ने अनुभव और साक्षात्कार द्वारा स्थिर किए थे।

बहुत से लोग कहते है कि पशुओं मे बुद्धि नही होती, बुद्धि केवल मनुष्य मे होती है। पर यह भ्रम है। रीढ़वाले विशेषत दूध पिलानेवाले जीवो मे बुद्धि वरावर पाई जाती है चाहे वह मनुष्यबुद्धि से कम हो। पशुओ मे बुद्धिविकाश का तारतम्य उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार मनुष्यो में। किसी सभ्यदेश के उद्भट दार्शनिक की बुद्धि और नरभक्षी असभ्य बर्बर की बुद्धि मे भी तो अंतर होता है। बस, उतना ही अंतर असभ्य बर्बर की बुद्धि मे और उन्नत पशुओ (वनमानुस आदि) की बुद्धि मे समझिए। मनुष्य के उन्नत मनोव्यापार (विवेचन आदि) भी ठीक उसी प्रकार वंशपरंपरा और स्थितिसामंजस्य के नियमाधीन है जिस प्रकार उन व्यापारों की इंद्रियाँ या मस्तिष्क।

बुद्धि, विवेचना आदि उन्नत कोटि के मनोव्यापारो का