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ऐसी शक्ति का अस्तित्व नही प्रतिपादित किया है जिसका कुछ भौतिक आधार न हो। प्रकृति से परे किसी आध्यात्मिक जगत् का पता नहीं लगा है।

और प्राकृतिक व्यापारो के समान मनोव्यापार (या आत्मव्यापार) भी परमतत्त्व या मूलप्रकृति के अटल और सर्वव्यापक नियम के अधीन है। एकघटक अणुजीवो तथा दूसरे अत्यंत क्षुद्रकोटि के जीवो मे जो मनोव्यापार देखे जाते है-जैसे उनका संक्षोभ, उनकी संवेदना, उनकी प्रतिक्रिया*, उनकी आत्मरक्षण प्रवृत्ति इत्यादि-वे घटक के भीतर के कललरस की क्रिया के अनुसार अर्थात् वंशपरंपरा और स्थितिसामंजस्य द्वारा उपस्थित भौतिक और रासायनिक विकारों के अनुसार ही होते है। यही बात मनुष्य तथा दूसरे उन्नत प्राणियों के उन्नत मनोव्यापारो के


  • क्षुद्र जीवो के शरीर पर बाहरी संपर्क या उत्तेजन से उत्पन्न क्षोभ प्रवाह के रूप मे कललरस के अणुओ द्वारा भीतर कद्र मे पहुँचता है और वहाँ से प्रेरणा के रूप मे बाहर की ओर पलट कर शरीर में गति उत्पन्न करता है। वस्तु-सपर्क के प्रति यह एक प्रकार की अचेतन क्रिया है जो ज्ञानकृत वा इच्छाकृत नही होती, केवल कललरस के भौतिक और रासायनिक गुणों के अनुसार होती है, जैसे छूने से लजालू की पत्तियों का सिमटना, उँगली रखने से क्षुद्र कीटो का अग मोडना इत्यादि। चेतना-विशिष्ट मनुष्य आदि बड़े जीवो मे भी यह अचेतन प्रतिक्रिया होती है। उनमे क्षोम अतर्मुख सवेदनसूत्रो द्वारा भीतर की ओर जाता है पर मस्तिष्क तक नही पहुँचता बीच ही से मेरुरज्जु या किसी और स्थान से पलट पडता है। आँख के पास किसी वस्तु के आते ही पलकें आप से आप, बिना इच्छा या संकल्प के, गिर पड़ती हैं।