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को गर्भस्फुरण भी उसी प्रकार होता है जिस प्रकार बिना रीढ़ वाले जीवो का। मै उन दिनो स्पंजो, मूँगो तथा उद्भिदाकार कृमिया के गर्भ-स्फुरण विधान का अन्वेपण कर रहा था। जब मैं ने इन समस्त जीवो मे इन दो बीजकलाओ को पाया तब मै ने निश्चित किया कि गर्भ का यह लक्षण समस्त जीवधारियो मे पाया जाता है। विशेष ध्यान देने की बात मुझे यह प्रतीत हुई कि स्पजो और छत्रक * आदि कुछ उद्भिदाकार कृमियो का शरीर बहुत दिनो तक-और किसी किसी का तो आयुभरघटको के दो पटल या कलाओ के रूप में ही रहता है। इन सब परीक्षाओ के आधार पर मै ने १८७२ मे गर्भस्फुरण संबधी अपना द्विकलघट सिद्धांत प्रकाशित किया जिसकी मुख्य मुख्य बाते ये है...

( १ ) समस्त जीवसृष्टि दो भिन्न वर्गो मे विभक्त है---एक-घटक आदिम अणुजीव तथा अनेकघटक समष्टिजीव। अणुजीव का सारा शरीर आयुभर एक घटक के रूप मे, अथवा घटको के


रीढ नही होती, नरम लचीली हड्डिया का तरुणास्थिदड होता है। कपाल भी इसे नही होता। इसी से यह अकरोटी (aciania) वर्ग मे समझी जाती है।

  • यह जतु खुमी या छत्रक के आकार का होता है पर इसमे एक मध्यदड के स्थान पर किनारे की और कई पैर सूत की तरह के होते है जिनसे वह समुद्र पर तैरा करता है।

ये अणुजीव जल मे पाए जाते है और अच्छे खुर्दबीन के द्वारा ही देखे जा सकते है।