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कुछ हजार वर्षों की सभ्यता का संक्षिप्त वृत्तांत मात्र है वह इस दीर्घ परंपरा के आगे कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार इम दीर्घ परंपरा का इतिहास भी हमारे सौर जगत् के इतिहास की अत्यंत क्षुद्र अंश है। इस अनंत ब्रह्मांड के बीच हमारी पृथ्वी सूर्य की किरण मे दिखाई देनेवाले अणु के समान है और मनुष्य सजीव सृष्टि के नश्वर प्रसार के बीच कललरस (Protoplasm) की एक क्षुद्र कणिका मात्र है।

इस विशुद्ध और विस्तृत वैज्ञानिक दृष्टि से जब हम ब्रह्माड को देखेगे तब जाकर विश्व के अनेक रहस्यो को समझने का मार्ग पावेगे, तब जाकर हम समझेगे कि मनुष्य का स्थान इस सृष्टि के बीच कहाँ है। मनुष्य अहंकारवश अपने को अखिल सृष्टि से अलग करके अपने मे 'अमृत तत्व का आरोप करता है। वह अपने को 'ईश्वरांश' और अपने क्षणिक व्यक्तित्व को 'अमर आत्मा' कहता है। यह अहंकार और भ्रम बिना विस्तृत विज्ञानदृष्टि के दूर नहीं हो सकता।

असभ्या को सृष्टि के अनेक व्यापार पहली समझ पडत हैं। ज्यों ज्यो सभ्यता और ज्ञान की वृद्धि होती जाती है त्यो त्यो इन पहेलियो या समस्यायो की संख्या घटती जाती है, बहुत से व्यापार समझ मे आने लगते हैं। अब तत्त्वाद्वैतवाद में केवल एक ही भारी पहेली रह गई है, एक ही 'परमतत्त्व की समस्या रह गई है। जर्मनी के एक वक्ता ने थोडे दिन हुए संसार-संबंधी ये सात समस्याएँ गिनाई थीं---

(१) द्रव्य और शक्ति का वास्तविक तत्त्व।

(२) गति का मूल कारण।