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मिति ठहरी तब उसके लिये अज्ञेय कैसे हो सकती है। इस प्रकार फिक्ट के दर्शन मे आत्मसत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया।

अद्वैत आत्मवाद या भाववाद मे बड़ी भारी अड़चन यह थी कि यदि ससार मे जो नाना नाना पदार्थ दिखाई पड़ते हैं वे चित्तू के भाव ही है तो किसी एक वस्तु की समान प्रतीति सब आत्माओ मे कैसे होती है, सब लोग एक सूर्य की भावना कैसे करते है। कांट की तरह बाह्यसत्ता का कुछ लेश रखने पर तो इसका समाधान यह मान कर हो सकता है कि एक वस्तुसत्ता भिन्न भिन्न आत्माओ मे एक ही प्रकार की अलग अलग प्रतीति उत्पन्न करती है। पर उस वाह्य वस्तु को भी चित् का स्वरूप मान लेने पर केवल दो रास्ते रह जाते हैं। या तो यह कहे कि जितनी आत्माएँ है उतने ही सूर्य (या सूर्य की प्रतीति) है अथवा यह कहे कि आत्मा एक ही है, अनेक नही। इग्लैड के भाववादी दार्शनिक बर्कले ने पहला रास्ता पकड़ा था। पर फिक्ट ने भिन्न भिन्न आत्माओं का प्रत्याख्यान कर के भारतीय वेदांतियो के समान एक ही आत्मा माना। यूरोपीय दर्शन मे इस प्रकार एक ही पूर्ण और व्यापक चैतन्य की प्रतिष्ठा हुई।

फिक्ट के पीछे शेलिंग ने प्रतिपादित किया कि एकांत चैतन्य सत्ता ही ब्रह्म है। जगत् चैतन्य वा ब्रह्म का ही भाव विधान है। ब्रह्मसत्ता शाश्वत सर्वव्यापिनी बुद्धिस्वरूपा है। यह संपूर्ण जगत् उसी बुद्धि का निरूपण है जिसकी पहले जड़जगत् के रूप मे और फिर-होते होते चेतन मनुष्य के रूप में अभि--