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कार्यकारणसंबंध बाह्य विषय नहीं,

चित् का ही स्वरूप है।

जैसे दिक् वस्तुओ के अवस्थान की चित्तप्रयुक्त च्यवस्था है और काल परंपरा की, उसी प्रकार कार्यकारणभाव वस्तुओ की क्रिया या व्यापार की व्यवस्था है जिसे चिन्त अपनी ओर से प्रदान करता है। प्रत्येक कार्य विशेष का निर्धारण प्रत्यक्षानुभव द्वारा होता है, पर कार्यकारणभाव, जिसके बिना क्रिया या व्यापार की भावना संभव नही, अतरात्मा से ही आता है। प्रमाण--

( १ ) चित् का स्वरूप ही ऐसा है कि यदि किसी व्यापार का चित्र उसमे उपस्थित होता है तो उसका संबंध बिना किसी कारण से लगाए वह रह ही नहीं सकता। प्रत्येक प्रत्यक्षानुभव में कार्यकारण-भाव समवेत रहता है। बाहर से जो कुछ हमें प्राप्त होता है वह अंत:करण का संवेदनसूत्रो द्वारा संहत संस्कार मात्र है। यदि हमारे मन में कार्यकारणभाव का साँचा न होता तो उस संस्कार के द्वारा बाह्य वस्तु के होने का कुछ भी ज्ञान न होता। इसी भाव के द्वारा हम सस्कार को कार्यरूप से ग्रहण करते हैं और अपने से बाहर दिक् में उसके कारण का अवस्थान ( स्थूल भूत के रूप मे ) करते हैं। कार्यकारण के भाव बिना बाह्य जगत् की प्रतीति का असंभव होना ही इस बात का प्रमाण है कि यह भाव हमे बाहर से प्राप्त नहीं होता, बुद्धि द्वारा ही प्राप्त होता है।

( २ ) शुद्ध कार्यकारण-भाव का चित्र हमारे मन मे