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कर कांट ने इंद्रियसंवेदन, मनन और प्रज्ञा या बुद्धि में उनको क्रमशः दिखलाया है। प्रत्यक्ष या इंद्रियज ज्ञान मे मूलाधार हैं दिक् और काल। दिक् और काल, इन्ही दो मूल स्वरूपो के भीतर सब प्रकार का प्रत्यक्ष ( इंद्रियज ) ज्ञान संभव है। मनन या अनुमान मे मूलाधार कुछ वर्ग या खंड होते है जिनमें प्राप्त संवेदनो या विषयों को बाँट कर मन अपने अनुमान को फैलाता है। तीन तीन भेदो से युक्त ये वर्ग चार है---परिमाण, गुण, सबंध और प्रकार। इन चार रूपो मे से किसी एक में आ जाने पर ही मन किसी वस्तु या विषय को ग्रहण कर सकता है। जो बाते इनमे नही आ सकती वे तर्क या अनुमान द्वारा सिद्ध नही हो सकती। अतः परमाणु, शून्य, ईश्वर, दैव अदि असिद्ध है। प्रज्ञा या बुद्धि के सांसिद्धिक स्वरूप है तीन भाव-—ईश्वर, आत्मा और जगत्। बुद्धि इन्हे केवल विचार की व्यवस्था के लिये अपनी ओर से प्रदान करती है, इनका बोध नही करती। इनके द्वारा अनुमान के वर्गविधान परिमिति के कारण, खंडित नही रह जाने पाते। ये प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा प्राप्त परिमित और बद्ध ज्ञान को अपरिमित और स्वतंत्र ( वाह्यनिरपेक्ष ) ज्ञान का स्वरूप देकर ज्ञान को पूर्णता और एकता तक पहुँचाते है। जैसे, इद्रियज्ञान द्वारा जो देशकाल का आरोप होता है उसे लेकर देशकालगत सब विषयो को एक कर बुद्धि उसका नाम जगत् रखती है। अनुमान के जो खंड है उन सब को मिलाने से आत्मा का भाव बनता है। कारणता को लेकर सब से आदि कारण को हम ईश्वर कहते है। पर अनुमान के