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होता है वह अपने भावो या प्रत्ययों का ही। अतः यदि किसी सत्ता कख पूर्ण निश्चय है तो आत्मसन्ता का। पर ईश्वर की कृपा से आत्मा के प्रत्ययों या भावो द्वारा हम दो प्रकार की सत्ताओ---दिग्बद्ध वस्तु ( भूत ) और ज्ञातृवस्तु या आत्मा--का अनुमान कर सकते है। सच पूछिए तो अद्वैत आत्मवाद का आधार कांट ने खड़ा किया। उसी ने ज्ञान के मूल की विस्तृत परीक्षा की। बाह्य जगत् का ज्ञान हमे किस प्रकार होता है? सवेदन द्वारा, अर्थात् हमारे अतःकरण वा मन मे वस्तुसत्ता के प्रभाव से एक सस्कार उत्पन्न होता है और मन उसी का बोध करता है। जैसे, स्पर्श का जो ज्ञान है वह वस्तुतः दबाव का ज्ञान नही है, उस दबाव की भावना करानेवाले संस्कार या संवेदन का ज्ञान है। वर्ण का जो ज्ञान होता है वह वास्तव मे वर्ण का ज्ञान नही है, वर्ण के उस संवेदन का ज्ञान है जो अंतःकरण या मन मे ही होता है। अर्थात्, मन को जिन रूपो का बोध होता है वे उसी के रूप है, किसी बाहरी वस्तु के नही। प्राप्त संवेदनो को देश काल के साँचे मे ढाल कर ही मन उनका ग्रहण करता है।

मनुष्य के ज्ञान की परीक्षा करके कांट ने यह निर्धारित किया कि उसका कितना अंश बाहर से प्राप्त होता है और कितना मन मे पहले ही से आधार या मूल के रूप मे वर्तमान रहता है। ये आधार या मूल चित् के स्वरूप ही हैं, ये स्वतः प्रमाण है, इनके बोध या निश्चय के लिये किसी प्रकार का अनुमान या तर्क नही करना पड़ता। इस प्रकार ज्ञान के कुछ स्वरूपसिद्ध मूलाधार मान