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अमेय सत्ता है जो भौतिक और मानसिक (या आध्यात्मिक) दोनो क्षेत्रों में अभिव्यक्त होती है" । इस अज्ञेय सत्ता को उसने प्रायः शक्ति के नाम से अभिहित किया है जो कहीं कहीं ( उसी के ग्रंथ मे ) भौतिक गतिशक्ति से भिन्न नही जान पड़ती। स्पेंसर की अज्ञेय मीमांसा के साथ उसकी विकाश की व्याख्या मेल नहीं खाती। सच पूछिए तो उसका विकाशवाद उसके अज्ञेयवाद पर प्रतिष्ठित ही नही है। सत्ता के विवेचन में उसने जो निरूपण किए हैं उनसे उसने विकाश की व्याख्या मे कुछ भी काम नहीं लिया है। न तो उसने यह बताया है कि अज्ञेय सत्ता क्या देश काल के भीतर अभिव्यक्त होती है और न यह कहा है कि वह क्यो पहले जड़ जगत् के रूप मे व्यक्त हुई, पीछे चैतन्य रूप मे।

यहाँ तक तो हर्बर्ट स्पेसर की बात हुई। अब यह देखना चाहिए कि विकाशवाद जगत् की व्याख्या में कहाँ तक पहुँचा है। विकाशवाद भौतिक और मानसिक दोनो व्यापारो की परिणामपरंपरा की व्याख्या करता है और इस प्रकार सपूर्ण जगत् की समस्या को अपने अंतर्भूत करता है। पर बहुत सी बाते ऐसी रह जाती है जिनके संबंध मे हमारा ठीक ठीक समाधान नहीं होता। कुछ उदाहरण लीजिए। विकाशवाद यह नही बता सका है कि क्यो एक पुरातन प्रधान भूत निर्विशेषता से सविशेषता की ओर, एकरूपता से अनेकरूपता की ओर प्रवृत्त होता है, प्रकृति की विकृति का कारण क्या है। इसी प्रकार जड़ से चेतन की उत्पत्ति का ब्योरा भी वह स्पष्ट रीति से नही समझा सका है।