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मवधी आदि जो सासिद्धिक भाव कहे जाते हैं वे पूर्वजो के अनुभव की अखंड परंपरा द्वारा प्राप्त हुए हैं। जिन, कार्यो से सुख का अनुभव हुआ वे प्राणी के लिये लाभदायक और जिनसे दुःख का अनुभव हुआ वे हानिकारक पाए गए। अतः कुछ कार्यों के अभास से प्रसन्नता और कुछ के आभास से भय वा विरक्ति मस्तिष्क या अंतकरण मे संस्कार रूप में मूलबद्ध होती गई और पीढ़ी दर पीढी चली आई। आरभ मे यह हानिलाभ का विचार या कार्यकारण का भाव स्पष्ट था पर क्रमशः वह दब गया अर्थात् कुछ कार्यो के साक्षात्कार से आनंद और कुछ के साक्षात्कार से भय वा विरक्ति विना हानिलाभ या परिणाम आदि की भावना के यो ही बद्ध संस्कार के रूप में होने लगी। बहुत छोटे गोद के बच्चे को जब हम क्रूर आकृति बना कर डाँटते हैं तब वह रोने लगता है और जब हँस हँस कर बुलाते हैं तब प्रसन्न होता है। उस बच्चे को कार्यकारण के अनुमान की शक्ति नहीं रहती, वह यह नही जानता कि क्रूर आकृति का परिणाम चपत या प्रसन्न आकृति का परिणाम मीठा दूध है। वह जो भय या आनन्द प्रकट करता है उस का कारण उस अंतःकरण-द्रव्य मे बद्ध संस्कार है जिसकी परंपरा लाखो पीढ़ियो से बच्चे तक चली आई है।

इस प्रकार आदिम काल मे ही मनुष्य जाति के बीच यह


लोक में संभव नहीं वह वाह्य पदार्थों या व्यापारों द्वारा उत्पन्न परिमित ज्ञान से प्राप्त नहीं हो सकता है। वह दिक् काल आदि से अपरिच्छिन्न सा का लक्षण है।