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पर नरबलि देने मे किसी के रोंगटे खड़े नही होते थे। बाइबिल मे इसके कई उल्लेख हैं, शुनःशेफ की वैदिक गाथा भी एक उदाहरण है। उद्दालक और श्वेतकेतु का आख्यान इस संबंध में ध्यान देने योग्य है। ये दोनों वैदिक काल के ऋषि थे। एक दिन उद्दालक, उनकी स्त्री और उनके पुत्र श्वेतकेतु बैठे थे। एक आदमी आया और श्वेतकेतु की माता को ले कर चलता हुआ। श्वेतकेतु को बहुत बुरा लगा। पिता ने पुत्र को यह कह कर शान्त किया कि यह सनातन धर्म है--एप धर्मः सनातनः---ऐसा सदा से होता आया है। श्वेतकेतु ने नियस किया कि जो स्त्री एक पति को छोड़ कर जायगी उसे भ्रूणहत्या का पाप होगा और जो पुरुष पतिव्रता को छीन कर ले जायगा उसे भी पातक लगेगा।

इसी प्रकार दीर्घतमस् ऋपि ने भी अपनी स्त्री के आचरण पर क्रुद्ध हो कर शाप दिया था कि अब से कोई स्त्री, चाहे उसका पति जीता हो या मर गया हो, दूसरे पुरुष से संसर्ग न कर सकेगी'। स्त्रियों के लिये जो पातिव्रत्य पहले 'दीर्घतमस का शाप' था वही आगे चल कर एक मात्र धर्म हुआ। इस बात की पुष्टि महाभारत के अन्य स्थलो से भी होती है। आदि पर्व में कुंती के प्रति जो उपदेश है उसमे लिखा है कि प्राचीन समय में केवल ऋतुकाल में पातिव्रत्य आवश्यक था---

ऋतावृतौ, राजपुत्रि, स्त्रिया भर्ता पतिव्रते।

नातिवर्तव्यमित्येवं धर्म धर्मविदो विदुः।।

शपेष्वन्येषु कालेषु स्वातंत्र्यं स्त्री किलाईति।

धर्ममेवं जनाः सन्तः पुराणां परिचक्षते।।