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कर्मयोग
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यदि वह उस दशा को पहुँच गया है, जहाँ वह अपना तन, मन, धन, सभी दूसरों के लिये दे सकता है, तो वह उसी लक्ष्य को पहुँचा जहाँ ज्ञानी अपने ज्ञान द्वारा तथा भक्त अपनी भक्ति द्वारा पहुँचेगा; और इस भाँति आप देखेंगे कि ज्ञानी भक्त, कर्म-योगी तीनों इसी आत्म-त्याग के केंद्र पर आकर मिलते हैं। हमारे धर्म और दर्शन- संबन्धी विचार कितने ही भिन्न क्यों न हों, हमारे शीश उस व्यक्ति के आगे श्रद्धा और भक्ति से झुक जाते हैं जो दूसरों के लिये अपना जीवन तक देने के लिये तैयार रहता है। यहाँ धर्म-संप्रदाय का प्रश्न नहीं उठता; धर्म के विरोधी तक आत्म- त्याग का ऐसा कार्य देख यह अनुभव करते हैं कि उन्हें उसकी श्रद्धा करनी चाहिये । आपने किसी कट्टर-से-कट्टर ईसाई को नहीं देखा, एडविन अर्नाल्ड की लाइट आफ एशिया (बुद्धचरित) पढ़ते समय उसका हृदय बुद्ध के प्रति श्रद्धा से भर जाता है, जिसने किसी ईश्वर का प्रचार नहीं किया, जिसने आत्म-त्याग छोड़ किसी धर्म का प्रतिपादन नहीं किया ? कट्टर व्यक्ति केवल यह नहीं जानता कि उसके जीवन का ध्येय वही है जो उनके जीवन का है, जिनका वह विरोध करता है । भक्त अपने चारों ओर भक्ति का वायुमंडल बना ईश्वर का ध्यान करता हुआ उसी लक्ष्य पर पहुँचकर कहता है, "तेरी इच्छा पूर्ण हो,” और अपने लिये कुछ नहीं रखता। वह आत्म-त्याग है । ज्ञानी अपने ज्ञान द्वारा देखता है कि यह अहंभाव मिथ्या है, और उसे वह तुरंत तज देता है ; वह भी आत्म-त्याग है । अतएव कर्म, भक्ति और