पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/९५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८
कर्मयोग
 

भोजन-वायु के लिये निरंतर संग्राम करना होता है। भोजन-वायु न मिले, तो हम मर जायें । जीवान एक सरल अमल प्रवाह नहीं; वह मिश्रित परिणाम है। आंतरिक और बाह्य के पारस्परिक संघर्ष का नाम जीवन है। अत: यह स्वयंसिद्ध है कि जब यह संघर्ष न होगा, तब यह जीवन भी न होगा।

आदर्श सुख का यह अर्थ होता है कि उसके प्राप्त होने पर इस संघर्ष की दशा का अंत हो जायेगा; परंतु तब जीवन का भी अंत हो जायेगा। संघर्ष का तभी अंत हो सकता है जब जीवन का भी अंत हो गया हो। इसके पश्चात् हमारे इस आदर्श- सुख का सहस्रांश भी पाने के पूर्व यह पृथ्वी बहुत कुछ ठंढी हो चुकेगी और हम लोग न होंगे। अतएव यह आदर्श-सुख का राम-राज्य इस संसार में संभव नहीं, अन्यत्र जहाँ भी संभव हो । हम यह देख चुके हैं कि परोपकार से हम अपना उपकार करते हैं। परोपकार का मूल प्रभाव अपने आपको पवित्र करना होता है । वारंबार दूसरों का उपकार कर अपने आपको भूल जाने का महान् पाठ हमें सीखना है। मनुष्य सूढतावश सोचता है कि वह सुखो हो सकता है ; वर्षों के संग्राम के पश्चात् उसे पता चलता है कि सच्चा सुख स्वार्थ-त्याग में है तथा उसे उसके अतिरिक्त दूसरा सुखी नहीं बना सकता । दया, उदारता, सहानुभूति, परोपकार का छोटा-सा भी काम हमें अपने आपको भूलने में सहायता देता है, हम अपने आपको सबसे छोटा और अगण्य समझते हैं ; इसलिये वह अच्छा कर्म है। यहाँ हम देखते