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कर्मयोग
 

का भला किया है अथवा कर सकते हैं। यह मिथ्या विचार है और मिथ्या विचारों से दुःख उत्पन्न होता है। हम सोचने हैं, हमने किसी की भलाई की है और उसके लिये वह हमें धन्यवाद दे; वह वैसा नहीं करता, तो हमें पछतावा होता है। जो कुछ हम करते हैं, उसके प्रतिफल की हम क्यों आशा करें ? जिनकी सहायता की है, उसके कृतज्ञ हों, उसे ईश्वर के समान जानें । अपने भाइयों की सहायता कर ईश्वर की उपासना करना, यह क्या हमारे किये कम सौभाग्य की बात है ? यदि हम सचमुच अनासक्त हों, तो मिथ्या प्रत्याशा के दुख से छूट जाए और संसार में प्रश्न रहे अच्छे कर्म कर सके हो कर्म करने से कभी भी दुख केसा होगा या संसार अपने सुख दुख के साथ अनंत काल तक यूं ही रहेगा ।


एक गरीब आदमी था जो चाहना था, धन मिले । कहीं उसने सुना कि यदि वह किसी प्रकार प्रेत को वश में कर ले, तो वह धन या जो भी चाहे, उससे मँगवा सके। इसलिए उसे बड़ी इच्छा थी कि वह किसी प्रकार प्रेत वश में कर ले। वह ऐसे मनुष्य की खोज में निकला जो उसकी इस काम में सहायता कर सके। अंत में उसे एक बड़े योगी महात्मा मिले और उसने उनसे सहायता माँगी। महात्मा ने पूछा-'प्रेत का क्या करोगे ?" "मैं प्रेत से अपना काम कराऊँगा"-उसने उत्तर दिया; "कृपा कर बताइये, मैं कैसे उसे वश में करूँ। मुझे उसकी बहुत ही आवश्यकता है।” परन्तु महात्मा ने कहा, "इन झंझटों में न