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कर्मयोग
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इसलिए न बना था कि हम और आप आकर उसका उपकार करें । मैंने एक बार एक सर्मन (धर्म व्याख्यान) पढ़ा जिसमें कहा गया था:-"यह सुन्दर संसार बहुत अच्छा है, क्योंकि यहाँ दूसरों का उपकार करने का हमें अवसर मिलता है।" ऊपर से देखा जाय. तो भाव बड़ा भला मालूम पड़ता है परंतु एक प्रकार से ऐसा सोचना अभिशाप है, क्योंकि यह कहना कि संसार को हमारी सहायता की आवश्यकता है, क्या पाप नहीं ? हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि दुनिया में बहुत-सा दुख है; इसलिये दुखियों को जाकर नहायता करना कर्म का श्रेष्ठ ध्येय है, परंतु अंत में हम देखेंगे कि दूसरों का उपकार हमारा ही उपकार है। बचपन में मैंने कुछ सफेद चुहियाँ पाली थीं। वे एक छोटे से संदूक में रखी जाती थी, जिसमें छोटे-छोटे पहिये लगे थे। चुहियाँ बाहर निकलना चाहती, तो पहियों को घुमातीं। पहिये घूमते और फिर घूमते, परंतु वे निकल न पातीं। इस भाँति संसार और हमारा उसके प्रति उपकार है। उपकार केवल यह होता है कि हमारा सदाचार का थोड़ा व्यायाम हो जाता है। यह संसार न भला है, न चुरा;प्रत्येक मनुष्य का संसार उसके साथ रहता है। जब अंधा संसार के विषय में सोचता है, तो वह उसके लिये कोमल या कठोर, ठंढा या गर्म होता है। सुख-दुख के हम लोग मिश्रित पिंड है; जीवन में इस बात का सैकड़ों बार हमें अनुभव हुआ होगा। साधारणत: युवा आशावादी और वृद्ध दु:खबादी होते । युवकों के आगे सारा जीवन पड़ा है; वृद्ध शिकायत करते