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कर्मयोग
 

जाति को विदित प्रतीत होता है। संसार भर में चक्र एक महान् प्रतीक रहा है। इसके बाद सबसे अधिक प्रचलित स्वस्तिका) चिन्ह है। किसी समय यह विचार था कि बौद्धों के साथ संसार में इसका प्रचार हुआ परंतु अब पता लगा है कि बौद्धों के पूर्व युगों से जातियों में उसका प्रयोग होता था। पुराने बैबिलोन और मिस्र देश में वह पाया जाता था। इससे क्या सिद्ध होता है ? ये सब प्रतीक रूढ़ि-जन्य न थे। उनके पीछे कोई बौद्धिक तर्कश्शृखला, उनके और मानव मस्तिष्क के बीच कोई नैसर्गिक घनिष्ट सम्बन्ध अवश्य होना चाहिये । भापा रूढ़ि-जन्य नहीं; ऐसा न हुआ था कि कुछ व्यक्तियों ने किन्हीं विचारों को किन्हीं शब्दों द्वारा व्यक्त करने का निश्चय किया था। शब्द और विचार स्वभाव से अभिन्न हैं। विचारों को व्यक्त करने के लिये ध्वनि अथवा चित्रों के संकेत हो सकते हैं। वहरे और गूंगे ध्वनि से इतर प्रतीकों का व्यवहार करते हैं। चित्त में प्रत्येक विचार का अपना आकार होता है ; संस्कृत दर्शन में उसे नाम- रूप कहा जाता है। भाषा की भाँति रूढ़ियों से प्रतीकों को जन्म देना असंभव है। संसार के उपासना-प्रतीकों में हम मानव मात्र की धार्मिक धारणाओं की अभिव्यंजना पाते हैं। मंदिर, मस्जिद, संध्या, नमाज आदि सब व्यर्थ हैं, कहना अत्यंत सरल है ; आजकल का छोटा बच्चा भी यह कहता है। परन्तु यह समझना मी सरल होना चाहिये कि मंदिर में पूजा करनेवाले बहुत कुछ उन लोगों से भिन्न प्रकृति के हैं, जो वहाँ नहीं जाते। ।