समझना अत्यन्त कठिन है। इसलिये प्रतीक नितांत आवश्यक हैं और सत्य को प्रतीकों द्वारा व्यक्त करने की प्रणाली को हम नहीं तज सकते । अनादि काल से सभी धर्म प्रतीकों का व्यवहार करते आये हैं। एक प्रकार तो बिना प्रतीकों के हम कुछ सोच नहीं सकते ; शब्द भी विचारों के प्रतीक हैं। अन्य अर्थ में विश्व की प्रत्येक वस्तु प्रतीक के रूप में देखी जा सकती है। समस्त सृष्टि एक प्रतीक है और ईश्वर उसके पीछे का सत्य तत्व । इस प्रकार का प्रतीकवाद केवल मनुष्य-कृत नहीं ; ऐसा नहीं होता कि किसी धर्म के कुछ व्यक्ति एक जगह बैठकर उसकी अभिव्यक्ति के लिये कुछ प्रतीक खोज निकालते हों, एक तथ्य का हाथ-पैरों वाला स्थूल रूप अपने दिमारा से गढ़कर खड़ा कर देते हों। धार्मिक प्रतीकों की प्राकृतिक उपज और वैसा उनका विकास होता है। नहीं तो किन्हीं प्रतीकों से प्रत्येक के मन में समान भाव क्यों उत्पन्न होते हैं ? कुछ प्रतीक प्रायः सार्वभौम परिचय प्राप्त किये हुये हैं। आप लोगों में से बहुतों का विचार होगा कि क्रॉस का चिन्ह सर्वप्रथम ईसाई धर्म के साथ जन्मा; परन्तु वास्तव में ईसाई धर्म के पूर्व, जव मूसा का जन्म न हुआ था, जब वेद उच्चरित न हुये थे, जब मनुष्य का कोई इतिहास न था, यह क्रॉस था। अज्टेक लोगों में क्रॉस का अस्तित्व पाया जा सकता है; फ़िनीशिया का प्रत्येक निवासी शायद अपने साथ एक क्रॉस रखता था। फिर ईसा के क्रॉस पर चढ़ने का प्रतीक, एक मनुष्य को क्रॉस पर शूली देने का संकेत प्रायः प्रत्येक
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कर्मयोग
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