लड़ा दो। कर्म की यह उपासना कर्म के ही लिये है। इसी भाँति इस कहानी में स्त्री और चांडाल ने अपने कर्तव्य का पालन किया और प्रसन्नता, सहृदयना, अपनी पूर्ण इच्छा के साथ; परिणाम यह हुआ कि वे ज्ञानी हो गये। प्रत्येक कर्तव्य पवित्र है और कर्तव्य की उपासना ईश्वर की सर्वोच्च उपासना है। वद्ध-प्रकृति- वालों की पथ-भ्रष्ट अज्ञान-भारानत आत्मा को मुक्त और प्रकाशित करने के लिये यह अवश्य हो सुन्दर मार्ग है। इस उदाहरण से यह प्रत्यक्ष है कि जीवन में किसी भी कुल, जाति, परिस्थिति का व्यक्ति फल और परिणाम में अनासक्ति रखते हुए अपने कर्तव्य का उचित पालनकर आध्यात्मिक पूर्णता का सर्वोच्च भागी हो सकता है।
हमारे कर्तव्य का निश्चय हमारी परिस्थितियों से होता है; वहाँ बड़ा छोटा नहीं हो सकता। फल की चिन्ता करनेवाला व्यक्ति ही अपने कर्त्तव्य की बड़ाई-छुटाई के लिये भाग्य को दोष देता । अनासक्त के लिये सभी कर्त्तव्य समान हैं; स्वार्थपरता और ऐन्द्रियता का समूल नाशकर अध्यात्म-ज्योति के पूर्णोद्भासन के लिये उसके हाथों वे उचित उपकरण हैं। हम सभी अपने आपको बहुत बड़ा समझ सकते हैं। जब मैं छोटा था तो सोचा करता था, मैं बादशाह हूँ, यह हूँ, वह हूँ; मैं समझता हूँ, ऐसे ही आप लोगों ने भी स्वप्न देखे होंगे। परन्तु वे स्वप्न ही तो थे; प्रकृति कठोरता निर्ममता से न्याय करती है। अतएव हमारा कर्तव्य बहुत कुछ हमारी योग्यताओं के अनुसार होता है, जितना कि हम साधारणतः