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कर्मयोग
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चांडाल शरीर में हैं और ऐसा घृणित नीच कर्म करते हैं?" चांडाल ने उत्तर दिया,--"कोई भी कर्त्तव्य घृणित नहीं, कोई भी कर्तव्य अपवित्र नहीं। मैं ऐसे ही कुल में, जाति में, परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ था। बचपन से ही मैंने यह कर्म करना सीखा। मैं अनासक्त हूँ और अच्छी तरह अपना रोजगार करने की चेष्टा करता हूँ। गृहत्थ के कर्तव्य का यथाशक्ति पालन करने का प्रयत्न करता हूँ और जो कुछ भी हो सकता है, उससे माता-पिता को प्रसन्न रखता हूँ। मैं तुम्हारा योग नहीं जानता, न सन्यासी हुआ हूँ, न संसार छोड़ कभी वन में गया हूँ। फिर भी जो कुछ तुमने देखा-सुना है, वह मेरे अनासक्त हो कर्त्तव्य-पालन का परिणाम है।"

भारतवर्ष में एक बहुत बड़े योगी हैं, मेरे जीवन के बहुत ही विचित्र पुरुषों में से एक, जिन्हें मैंने देखा है। उनकी प्रकृति अनोखी है, वह किसी को शिक्षा नहीं देते; कोई प्रश्न पूछिये तो उसका उत्तर न देंगे। धर्मोपदेशक होना उनके लिये अत्यन्त कठिन है; वह काम उनसे होने का नहीं। कोई प्रश्न कर आप कुछ दिन ठहरिये, तो बातचीत के सिलसिले में वह उस विषय को स्वयं छेड़ेंगे और उस पर अद्भुत प्रकाश डालेंगे। एक बार उन्होंने मुझे पूर्ण कर्म का रहस्य बताया; वह यह था,-"परिणाम और उपकरण जुड़कर एक हो जाने दो, यही कर्म का रहस्य है।" जब कोई काम कर रहे हो, तो उससे परे की बात न सोचो। उसे उपासना, सर्वोच्च उपासना-समझ उस काल के लिये उसमें जान