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कर्मयोग
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और पतन की ओर ले जाते हैं तथा आत्म-त्याग और संयम उसे पुण्य के विकास की ओर।

कर्तव्य शायद ही कभी मीठा हो। जब प्रेम उसके चक्रों को तैलाक कर देता है तब तो वह सरलता से चलता है, नहीं तो सदा संघर्ष हुआ करता है। उसके बिना कौन माता-पिता अपनी संतान के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं? कौन संतान अपने माता-पिता के प्रति? कौन पति अपनी स्त्री के प्रति और कौन स्त्री अपने पति के प्रति? प्रतिदिन अपने जीवन में क्या हमें संघर्ष देखने को नहीं मिलता। कर्त्तव्य केवल प्रेम से मीठा हो सकता है और प्रेम केवल स्वतंत्रता में मिलता है। परंतु क्या इंद्रियों के राग द्वेप तथा सांसारिक जीवन में अहरह होनेवाली क्षुद्र-क्षुद्र भावनाओं के दास होने में स्वतंत्रता है? जीवन में इन सब क्षुद्रताओं से अपने आपको बचाना शक्ति और स्वतंत्रता का महत्तम परिचय है। स्त्रियाँ अपनी ही द्वेष और ईर्ष्या से भरी प्रकृति की दास हो वहुधा अपने पतियों को दोष दे सकती हैं तथा अपनी स्वतंत्रता की, जैसा कि वे समझती हैं , घोषणा कर सकती हैं परंतु यह न जानते हुये कि इससे वे अपनी ही दासता सिद्ध कर रही हैं। यही हाल पतियों का हो सकता है। जो सदा अपनी स्त्रियों के विषय में नुक्ताचीनी किया करते हैं।

स्त्री अथवा पुरुष में चारित्र्य पहला गुण है ; पुरुष कितना ही कुमार्ग में चला गया हो , वह एक पतिव्रता, सुशील और प्रेम करनेवाली पत्नी द्वारा सुमार्ग में न लाया जा सके, ऐसा कम देखा"