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कर्मयोग
 

चाहिए; बड़ा-छोटा वह जिस भाव से, जिस ढंग से उन्हें करता है, होता है।

बाद में हम देखेंगे कि कर्तव्य का यह विचार भी बदलना पड़ता है तथा सबसे सुन्दर और महान् वह कर्म होता है जिसकी प्रेरक कोई इच्छा नहीं होती। किन्तु कर्त्तव्य का ध्यान रखते हुए हम जो कर्म करते हैं, वही हमें उस कर्म तक पहुंचा सकता है, जहाँ कर्त्तव्य का भी विचार नहीं रहता। तब कर्म उपासना हो जायगा, वरन् उससे भी और कुछ बढ़कर, कर्म केवल कर्म के लिए। वह उच्चतम आदर्श है और कर्त्तव्य-पथ से ही हम उस तक पहुँच सकते हैं। हम देखेंगे कि कर्त्तव्य की सभी धारणाओं के पीछे, चाहे धर्म में चाहे प्रेम में एक ही दर्शन है, जैसा कि सभी योगों में-यह लक्ष्य रखना कि स्थूल को घटाया जाय जिससे सूक्ष्म जोकि हमारा वास्तविक स्वरूप है अपनी पूर्ण प्रभा में भासित हो। जीवन की निम्न सतहों पर शक्ति नष्ट न कर उन्हें संचित किया जाये जिससे आत्मा उनसे बड़ी ऊँची सतहों पर चमक सके। कर्त्तव्य का कठोरता से पालन कर क्षुद्र इच्छाओं को बारंबार दबाकर ऐसा किया जाता है। समाज का पूर्ण संगठन इस प्रकार ज्ञात किंवा अज्ञात रूप से अनुभूतियों और कर्मों के क्षेत्र पर किया गया है जहाँ पर क्षुद्र स्वार्थी भावनाओं को दबाकर मनुष्य की सच्ची महत्तर प्रकृति के विकास का अनवरुद्ध मार्ग खोला जाता है। वह एक सुनिश्चित कर्त्तव्य- धर्म है कि कर्ता की दृष्टि से स्वार्थ और वासना मनुष्य को पाप