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कर्मयोग
 

अवश्य प्रसन्न होगा और समझेगा कि उसने अपने कर्तव्य का पालन किया। इसलिये प्रमाणित है कि कृतकर्म से कर्तव्य का निश्चय नहीं हो सकता। कर्म के अनुसार कर्त्तव्य की व्याख्या नहीं हो सकती; कर्म से निश्चित कर्त्तव्य का अस्तित्व नहीं। परन्तु कर्ता की ओर से कर्त्तव्य निश्चित होता है। जिस कर्म से हम ऊपर ईश्वर की ओर जाते हैं, वह शुभकर्म है और हमारा कर्तव्य है; जिस कर्म से हम नीचे की ओर जाते हैं, वह अशुभ कर्म और अकर्तव्य है। कर्ता की दृष्टि से हम देख सकते हैं कि कुछ कर्म हमें उन्नत और महत्तर बनाते हैं तथा कुछ हमें पतित और पशुवत् बनाते हैं। परन्तु यह निश्चय से कहना कि किन कर्मों का सभी परिस्थितियों और दशाओं के मनुष्यों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, सम्भव नहीं। सभी देश, काल तथा सम्प्रदायों के लोगों ने तो भी एक कर्तव्य माना है जो एक संस्कृत उक्ति में इस प्रकार रख दिया गया है:-"किसी की हिंसा न करो, अहिंसा धर्म है; हिंसा पाप है।" यह एक सार्वदेशिक कर्म निश्चित कर्तव्य की व्याख्या है जो हमें मिलती है। कर्ता की दृष्टि से कर्तव्य के बारे में हम नहीं कह सकते हैं कि जिस भाव से कोई काम किया जाता है वह उठानेवाला होता है, जिस भाव से अन्य काम किये जाते हैं, वह गिरानेवाला होता है, और बहुधा अपनी ही दृष्टि में।

भगवद्गीता में अनेक स्थलों पर जन्म और जीवन की श्रेणी के अनुसार धर्म की ओर इङ्गित किया गया है। जन्म और श्रेणी से मनुष्य की विभिन्न कमों के प्रति मानसिक और धार्मिक धार-