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चौथा अध्याय

कर्तव्य

कर्म-योग का अध्ययन करते यह जानना आवश्यक है कि कर्म क्या है, और उसी के साथ स्वभावतः यह प्रश्न उठता है, कर्त्तव्य क्या है? यदि मैं कुछ करना चाहूँ, तो मुझे पहले देखना होगा कि यहाँ मेरा कर्त्तव्य क्या है, और तभी मैं उसे ठीक-से कर सकूँगा। जैसा पहले दिखाया जा चुका है, कर्तव्य के संवन्ध में अलग-अलग देशों में उनकी अलग-अलग धारणायें हैं। मुसल्मान कहता है, जो उसकी क़ुरान में लिखा है, वही उसका धर्म है; हिन्दू कहता है, जो उसके वेदों में लिखा है, वह उसका कर्त्तव्य है; ईसाई कहता है, उसका कर्तव्य उसकी बाइबिल में लिखा है। अत: हम देखते हैं कि जीवन की विभिन्न अवस्थाओं तथा देश-काल के अनुसार कर्त्तव्य- कर्म निश्चित होना चाहिये और होता है। अनेक सार्वभौमिक संज्ञाओं की भाँति कर्त्तव्य की व्याख्या करना भी कठिन है। कर्तव्य कहाँ किया जाता है, कैसे किया जाता है, उसका फल क्या होता है, आदि बातों का विचार कर हम कर्त्तव्य-संबन्धी अपनी एक धारणा मात्र बना सकते हैं। हमारे सामने जब कोई बात