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कर्मयोग
 

का व्यवहार अवश्य ही स्वार्थ का व्यवहार है। सभी स्त्री-पुरुष जो भी शक्ति अथवा बड़प्पन उनके पास है, उसे और भी बड़ा कर दिखाने की चेष्टा करते हैं। दया तो स्वर्ग ही है, अच्छे होने के लिये हम सबको दयालु होना पड़ेगा। न्याय, शक्ति और सत्य तक दया पर निर्भर रह सकते हैं। कर्म-फल की प्रत्याशा हमारी आध्यात्मिक उन्नति में वाधक होती है। अन्त में उससे दुख भी मिलता है। उसी कर्म का फल वन्धन नहीं हो सकता जो प्रकृति एवं मनुष्य-जाति के प्रति निःस्वार्थ होकर किया जाता है। इस दया और त्याग के विचार को कार्य-रूप में परिणत करने का एक और ढंग है, कर्म को उपासना समझकर, यदि हम एक व्यक्तिगत ईश्वर में विश्वास करते हो। यहाँ हम अपने कर्मों के फल अपने उपास्यदेव को अर्पण करते हैं; उसकी उपासना करते हुये मनुष्य के लिये किये कर्मों का प्रतिफल माँगने का हमें अधिकार नहीं। ईश्वर स्वयं अविरत कर्म करता है, और बिना आसक्ति के। जिस प्रकार जल से कमल-दल नहीं भीगता, उसी प्रकार निःस्वार्थ पुरुष कर्मफल की प्रत्याशा से नहीं बाँधा जाता। अनासक्त और स्वार्थहीन व्यक्ति किसी भी जनाकीर्ण पाप के केंद्र नगर में प्रवेश करे, परंतु पाप की कालिमा उसे स्पर्श न कर सकेगी।

पूर्ण आत्म-त्याग के उदाहरण की मैं एक कहानी कहता हूँ। कुरुक्षेत्र का समर समाप्त होने पर पाँचों पांडवों ने एक राजसूय यज्ञ किया और दोनों को बहुत-सा दान दिया। तमाम लोगों ने