ब्रह्माण्ड को इस प्रकार प्यार करने लगे हैं कि उससे कोई ईर्ष्यालु, स्वार्थी एवं दुःखद प्रतिक्रिया नहीं होती, तब आप अनासक्त होने योग्य दशा को पहुँचे हैं।
कृष्ण कहते हैं,-"अर्जुन, मेरी ओर देखो! यदि पल के लिये मैं कर्म करना बंद कर दूं, तो यह ब्रह्माण्ड विच्छिन्न हो जाय। फिर भी ब्रह्माण्ड से मुझे कुछ मिलने को नहीं। मैं एक मात्र स्वामी हूँ; कर्म से मुझे कोई लाभ नहीं। परंतु मैं कर्म क्यों करता हूँ? इसलिये कि मैं संसार को प्यार करता हूँ।" ईश्वर अनासक्त है, इसलिये कि वह प्यार करता है; उस प्रकार का सबा प्यार हमें अनासक्त बनाता है। जहाँ केवल सांसारिक आसक्ति, सांसारिक वस्तुओं के प्रति भयानक आकर्पण है, वहाँ समझ लेना चाहिए कि वह सब दैहिक है, एक प्रकार का विभिन्न परमाणु- विभागों के बीच पारस्परिक आकर्पण-प्रत्याकर्षण, जो कि नितान्त स्थूल है, उन्हें आपस में मिलने के लिये आकुल करता है; यदि वे काफी एक दूसरे के नजदीक नहीं आ पाते तो उन्हें पीड़ा होती है। परंतु जहाँ सच्चा प्रेम होता है, वहाँ दैहिक मिलन की अपेक्षा नहीं रहती। प्रेमी एक दूसरे से सहस्रों कोसों की दूरी पर हों परंतु उनका प्रेम वैसा ही होगा। वह अमर है; उससे कोई भी दुख देनेवाली प्रतिक्रिया न होगी।
यह अनासक्ति पाना प्राय: एक जीवन का कार्य है ; परंतु इस सीमा तक आते ही प्रेम के लक्ष्य तक हम पहुँच जाते हैं और स्वतंत्र हो जाते हैं। प्रकृति-बंधन टूट जाते हैं और प्रकृति को हम