पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/५०

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कर्मयोग
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है अथवा स्वार्थ-रहित, निम्न कसौटी है। प्रत्येक निःस्वार्थ कार्य से आनन्द उत्पन्न होता है; प्रेम का एक भी ऐसा सच्चा कार्य नहीं हो सकता, जिसका परिणाम शांति और आनन्द न हो। सच्चा प्रेम, सचा ज्ञान, सच्चा जीवन अन्योन्यापेक्षित हैं, और वास्तव में वे एक ही के तीन भाग हैं। जहाँ एक होगा, अन्य दो भी होंगे; अद्वितीय एक के वे तीन अंश हैं, सत्, चित्, आनन्द। जव वह सत्ता अनन्त से सांत में आती है, हम उसे संसार के रूप में देखते हैं; वह ज्ञान सांसारिक वस्तुओं के ज्ञान में परिणत हो जाता है; और वह आनन्द ही उस तमाम सच्चे प्रेम का आधार है जिसे कभी मनुष्य का हृदय जान पाता है। मान लीजिये, किसी पुरुष का किसी स्त्री पर प्रेम है; वह चाहता है कि वह उसी की होकर रहे। उसके उससे दूर रहने पर उसे ईर्ष्या होती है ; वह चाहता है कि वह उसी के समीप उठे-बैठे, उसी के संकेत पर खाये-पिये, हिले-डुले। वह उसका दास है और चाहता है कि वह भी उसकी दासी होकर रहे। यह प्रेम नहीं। दास के हृदय की यह एक दुर्बल आसक्ति है जिसे वह प्रेम कहकर मानता है। यह प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि इसमें पीड़ा है; जो कुछ वह कहता है, यदि वह नहीं करती तो उसे दुःख होता है। प्रेम में कोई दुखद प्रतिक्रिया नहीं होती; उससे केवल आनन्द उत्पन्न होता है। यदि आनन्द नहीं, तो वह प्रेम नहीं; मनुष्य को किसी अन्य वस्तु में प्रेम का भ्रम होता है। जब आप अपनी पत्नी, पुत्र, बंधु-बांधव, परिवार, संसार, समस्त