पर उनका प्रभाव रहेगा। वास्तव में ये बुरे संस्कार सारे समय क्रियाशील रहते हैं और उनका स्पष्ट परिणाम, यहाँ अवश्य ही बुरा होगा। वह पुरुष बुरा होगा; और कुछ होना उसके लिये संभव नहीं। संस्कारों की भीड़ उसके भीतर बुरे काम करने के लिये एक महती इच्छाशक्ति उत्पन्न करती है। अपने संस्कारों के हाथों वह यंत्र तुल्य होगा और उनके इंगित पर उसे चलना पड़ेगा। इसी भाँति यदि कोई अच्छी बातें सोचता है और अच्छे काम करता है तो संस्कार उसके भीतर अच्छे काम करने की इच्छा-शक्ति उत्पन्न करेंगे। उसे अच्छे काम करने के लिये वे विवश करेंगे। जब मनुष्य इतने अच्छे काम कर चुकता है, इतने अच्छे विचार सोच सकता है कि उसके भीतर अच्छे काम करने की एक अनिवार्य प्रवृत्ति हो जाती है, तब यदि वह कुछ बुरा करना भी चाहे तो उसके अच्छे संस्कार उसे वसा करने न देंगे। वे उसे बुराई की ओर से लौटा लायेंगे; अच्छे संस्कारों के प्रभाव से वह न बच सकेगा। जब ऐसा होने लगता है, तो कहा जाता है कि मनुष्य का चरित्र बन गया।
जिस तरह कछुआ अपने पैर और सिर भीतर कर लेता है, और फिर उसे चाहे मार ही डालो पर वह बाहर नहीं निकालता, ऐसा ही उस मनुष्य का चरित्र होता है जो इन्द्रियों पर अखंड विजय पा लेता है। अपनी प्रवृत्तियों को वह अपने भीतर समेट लेता है और फिर कैसे भी प्रहार उन्हें बाहर नहीं निकाल सकते। 'शुभ विचारों के निरंतर प्रवेश से, चित्त पर शुभ संस्कारों के