निर्वाण तन्त्र" में से, जिसमें इस विषय की चर्चा की गई है, कुछ सुन्दर स्थल पढ़ता हूँ और आप देखेंगे, गृहस्थ होना और अपने धर्म का पूर्ण रूप से पालन करना कितना कठिन है।
"गृहस्थ को ईश्वरोपासक होना चाहिये; ईश्वर की अनुभूति उसका ध्येय होना चाहिये। फिर भी उसे सदा कर्म-रत, अपने सभी कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। जो कुछ वह करे, ईश्वर के नाम पर करे।"
संसार में यही करना सबसे कठिन है, काम करना किन्तु फल की प्रत्याशा न करना, किसी की सहायता करना और यह न सोचना कि वह तुम्हें धन्यवाद दे, कोई अच्छा काम करना पर साथ ही यह न देखना कि उससे कुछ धन-यश मिलेगा, अथवा कुछ मिलेगा ही नहीं। संसार जब प्रशंसा करने लगता है, तब कायर-से-कायर भी शूर हो जाता है। समाज से तिरस्कृत होने पर वह वीरता के कार्य नहीं कर सकता; परन्तु किसी मनुष्य के लिये समाज की निन्दा-प्रशंसा की तनिक भी चिन्ता किये विना काम करते रहना, उसका सबसे बड़ा त्याग है। गृहस्थ का कर्तव्य है, जीविकोपार्जन! परन्तु उसे ध्यान रखना होगा कि वह झूठ बोलकर, धोखा देकर अथवा दूसरों को ठगकर ऐसा न करे और उसे यह भी स्मरण रखना चाहिये कि उसका जीवन ईश्वर की उपासना के लिये है, उसका जीवन दीन दुखियों की सेवा के लिये है।
"माता-पिता को ईश्वर का साक्षात् प्रतिनिधि जानकर गृही