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कर्मयोग
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समान भाववाले अथवा शक्तिवाले नहीं होते; कार्य करने की सब में समान सामर्थ्य नहीं होती। उनके विभिन्न आदर्श होने ही चाहिये और किसी भी आदर्श से घृणा करने का हमें अधिकार नहीं। प्रत्येक मनुष्य अपनी शक्ति-भर अपने आदर्श तक पहुँचने की चेष्टा करे। न मैं आपके आदर्श से जाँचा जाऊँ, न आप मेरे आदर्श से। अमरूद के पेड़ की बबूल के गुणों से न परख की जानी चाहिये, न बवूल की अमरूद के गुणों से। अमरूद की परख अमरूद के गुणों से कीजिये; बबूल की परख के लिये उसके गुण अलग हैं; यही हम सब पर लागू है।

विभिन्नता में एकता सृष्टि-क्रम का मूल-मंत्र है। स्त्री-पुरुष व्यक्तिगत रूप से कितना भी एक दूसरे से जुदा-जुदा हों, उनके पीछे एकता अवश्य है। फिर भी स्त्री-पुरुषों को विभिन्न श्रेणियाँ और चरित्र सृष्टि-धर्म के नैसर्गिक उत्थान-पतन हैं। इसलिये उन सबकी परख हमें एक ही मापदंड से न करनी चाहिये न उनके सामने एक ही आदर्श रखना चाहिये। इस भाँति के कार्य-क्रम से अनावश्यक संघर्ष का जन्म होता है; परिणाम यह होता है कि मनुष्य अपने आपसे घृणा करने लगता है तथा उसके धार्मिक और उन्नत बनने के मार्ग में बाधायें आ खड़ी होती हैं। हमारा कर्तव्य यह है कि प्रत्येक को हम उसके आदर्श तक पहुँचने में प्रोत्साहन दें और साथ ही यथासम्भव इस आदर्श को सत्य के सन्निकट रखने का प्रयत्न करें।

हिन्दू आचार-शास्त्र में इस बात की जानकारी बहुत पहले