कहते हैं, क्योंकि वह अपने शत्रुओं से इसलिये नहीं लड़ता कि वे उसके सम्बन्धी और मित्र हैं, इसलिये कि अहिंसा ही परम धर्म है। हम लोगों को यह महान् पाठ भली भाँति याद रखना चाहिये कि सर्वथा दो वस्तुओं की चरम सीमाएँ एक होती हैं; चरम अस्ति और चरम नास्ति एक हैं। ज्योति के स्पन्दन जब बहुत धीमे होते हैं, तब हम उन्हें देख नहीं सकते और न उन्हें हम तब देख सकते हैं जब वे अत्यंत तीव्र हो जाते हैं। इसी भाँति शब्द; जब वह बहुत मंद होता है तब हम उसे सुन नहीं सकते और जब वह बहुत ऊँचा हो जाता है, तब भी उसे नहीं सुन सकते। इसी भाँति हिंसा और अहिंसा का भेद है। एक मनुष्य पाप का प्रतिकार इसलिये नहीं करता कि वह आलसी और निःशक्त है, चाहे भी तो कर नहीं सकता, इसलिये नहीं कि प्रतिकार करने की उसे इच्छा नहीं; दूसरा मनुष्य जानता है कि चाहे तो असह्य प्रहार कर सकता है, फिर भी वह प्रहार न कर अपने शत्रुओं को आशीर्वाद देता है। जो दुर्बलता के कारण प्रतिकार नहीं करता, वह पापी है, और इस अहिंसा से उसका कोई भला नहीं हो सकता; साथ ही दूसरा यदि प्रहार करे तो पाप का भागी होगा। बुद्ध ने अपना राजसिंहासन छोड़ दिया, वह सच्चा त्याग था; भिखारी के साथ त्याग का प्रश्न नहीं उठता, जिसके पास तजने के लिये कुछ है ही नहीं। इसलिये अहिंसा और आदर्श प्रेम की बातचीत करते समय हमें थोड़ा चौकन्ना रहना चाहिये कि हमारा ठीक अर्थ क्या है?
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कर्मयोग
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