जीवन का हमें यही उच्चतम आदर्श जँचता है; फिर उसका प्रचार करना आधी मानव-जाति के अभिशाप तुल्य होगा। यही नहीं, इससे मनुष्य को सदा उचित-अनुचित का भय लगा रहेगा; वह यही सोचा करेगा, वह जो कुछ कर रहा है, हिंसा तो नहीं। वह निःशक्त हो जायगा और यह आत्म-कातरता किसी भी अन्य दुर्बलता की अपेक्षा पाप के अधिक बीज बोयेगी। जो मनुष्य अपने आप से घृणा करने लगा, उसके लिये विनाश का दरवाजा खुल गया; और यह बड़ी-बड़ी जातियों के लिये भी सच है।
हमारा पहला कर्तव्य है, हम अपने-आप से घृणा न करें; आगे बढ़ने के लिये पहले अपने आप में, उसके बाद ईश्वर में विश्वास चाहिये। जिसे अपने ऊपर भरोसा नहीं, उसे ईश्वर पर कभी भरोसा नहीं हो सकता। इसलिये हमारे लिये यही मार्ग रह जाता है कि हम इस बात को स्वीकार करें कि भिन्न परिस्थितियों के अनुसार धर्म और आचरण में विभेद होता है; यह नहीं कि जो मनुष्य पाप का प्रतिकार करता है वह सदा एक ऐसा काम करता है जो कभी ठीक हो नहीं सकता। प्रत्युत जिन विशेष परिस्थितियों में वह पड़ा है, उनमें पाप का प्रतिकार करना उसका धर्म भी हो सकता है।
आप लोगों में से बहुतों ने भगवद्गीता पढ़ी होगी और बहुतों ने यहाँ पाश्चात्य देशों में पहले अध्याय पर आश्चर्य का भी अनुभव किया होगा, जहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को कायर और प्रपंची