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कर्मयोग
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भार उससे सुरक्षित रखता है; इसी भाँति ये अकर्मण्य संन्यासी संसार के संसर्ग में आते ही छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। क्या एक मनुष्य, जो जीवन के प्रखर प्रवाह में बहने का आदी है, एकाएक किसी निर्जन स्थान में आकर जीवित रह सकता है? वहाँ से यदि जिया, तो वह पागलखाने ही जा सकता है। आदर्श मनुष्य वह है जो अक्षुण्ण शांति और निर्जनता में रहता हुआ भी अविराम गति से कर्मण्य रहता है तथा जो घोर कर्मण्यता का केंद्र होते हुये भी वन की-सी शांति और निर्जनता पाता है। उसने निरोध का रहस्य सीख लिया है। अपने आपको उसने वश में कर लिया है। विशाल नगरी के कोलाहल-पूर्ण जनपथ में जाते हुए भी उसका चित्त ऐसा शांत रहता है जैसे वह किसी दूर पर्वत-कंदरा में बैठा हो जहाँ पक्षी तक न बोलता हो; और सारे समय वह कर्मरत रहता है। यही कर्म-योग का आदर्श है और यदि आप वहाँ तक पहुँच गये तो आपने वास्तव में कर्म का रहस्य जान लिया।

परंतु हमें आदि से आरंभ करना पड़ेगा। जो काम भी सामने आये हम उसे करें और धीरे-धीरे स्वार्थ छोड़ते जायँ। जो काम हमारे भाग में पड़ा है, उसे करते हुये उसकी प्रेरक इच्छा का हमें पता लगाना चाहिए; और प्रायः विना अपवाद के पहले पहल हमें पता लगेगा कि हमारी इच्छायें स्वार्थी हैं। धीरे-धीरे यह स्वार्थ की जड़िमा दूर होगी; सतत प्रत्यत्न से अंत में वह समय आयेगा जब हम निःस्वार्थ कर्म कर सकेंगे, कम-से-कम कभी-