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कर्मयोग
 

दूँ जो वास्तव में कर्मयोग के सिद्धान्त को कार्य-रूप में लाया। वह पुरुष है, बुद्ध। वही एक पुरुष है जिसने कभी उसका पूर्ण अभ्यास किया। बुद्ध को छोड़ संसार के बड़े-बड़े पैग़म्बर निःस्वार्थ कर्म के लिये वाह्य प्रेरणाओं से प्रेरित हुये है। संसार के धर्मोपदेशक बुद्ध का अपवाद छोड़, दो श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं; एक तो वे जो अपने को ईश्वर का अवतार कहते थे, अन्य वे जो अपने को ईश्वर का दूत-मात्र मानते थे। दोनों को कर्म के लिये बाहर से प्रेरणा मिलती है, वे कर्म के लिये पुरस्कार चाहते हैं, उनकी भाषा कितनी ही आध्यात्मिक शब्दावली से पूर्ण क्यों न हो। बुद्ध ही एक वह पैग़म्बर हुआ है जिसने कहा था,-- "मैं तुम्हारे ईश्वर-सम्बन्धी मत-मतांतरों को नहीं जानना चाहता। अध्यात्म ज्ञान की बारी- कियों को सुलझाने की दरकार नहीं है। भलाई करो और भले बनो। इसी से तुम्हारी मुक्ति होगी, और जो कुछ भी सत्य है, वह तुम्हें मिलेगा।" अपने जीवन के व्यवहारों में वह बिल्कुल ही स्वार्थ भावना-हीन थे। और उनसे अधिक कर्म किसने किया है? इतिहास में मुझे एक चरित्र ऐसा दिखा दीजिये जो औरों के इतने ऊपर उड़ा हो। सारी मनुष्य-जाति ने केवल एक ही ऐसा चरित्र उत्पन्न किया है। ऐसी गहन दार्शनिकता, ऐसी व्यापक संवेदना, यह महान् दार्शनिक सर्वोच्च दर्शन का प्रचार करता हुआ भी हृदय में छोटे-से-छोटे पशुओं के लिये करुणा से भरा हुआ था। फिर भी अपने लिये उन्होंने कुछ नहीं चाहा। वह