भी। यदि स्वतंत्रता और ईश्वरप्राप्ति के लिये चेष्टा न हो, तो भी सृष्टि न हो। इन्हीं दो शक्तियों के विभेद के अनुसार मनुष्य की इच्छाएँ बनती हैं। कर्म के लिये ये इच्छायें सदा रहेंगी, कुछ, स्वतंत्रता की ओर प्रेरित करनेवाली, कुछ परतंत्रता की ओर।
संसार की कारीगरी--चक्र के भीतर चक्र--विचित्र है। उसके भीतर हाथ डालते ही हम फंसे नहीं कि गये। हम सब सोचते हैं अमुक कर्तव्य का पालन करने पर हमें शांति मिलेगी; परंतु उसे पूरा भी नहीं कर पाते कि दूसरा सामने आकर खड़ा हो जाता है। हम सबको यह अद्भुत और शक्तिसंपन्न संसार-यंत्र खींचे लिये जाता है। छुटकारा पाने के केवल दो मार्ग हैं; एक तो यंत्र छोड़कर उससे तनिक संबंध न रख अलग खड़े हो जाओ, अपनी इच्छाओं का त्याग करो। यह कहना अत्यंत सुकर है परन्तु करना अत्यन्त दुष्कर। मैं नहीं जानता, यदि करोड़ों में एक वैसा कर सको। दूसरा मार्ग यह है कि संसार में कूद पड़ो, कर्म का रहस्य जानो; यह मार्ग कर्मयोग का है। संसार-यंत्र के चक्रों से भाग न खड़े हो, उनके भीतर पैठो और कर्म का रहस्य सीखो। भीतर उचित कर्म कर बाहर निकल आना संभव है। यंत्र में ही बाहर आने का भी मार्ग है।
अब हम देख चुके, कर्म क्या है। वह प्रकृति का आधार- भाग है और निरंतर होता है। जिन्हें ईश्वर में विश्वास है, वे इसे और भली भाँति समझते हैं, क्योंकि ये जानते हैं कि ईश्वर ऐसा असमर्थ नहीं कि उसे हमारी सहायता की आवश्यकता हो।