पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
१४१
 

गया कि ईश्वर के राज्य में गुलामी न होगी, खाने-पीने, मौज उड़ाने के भी काफी सामान होंगे; इसलिये ईसाई झंडे के नीचे आ-आकर खड़े होने लगे। जिन्होंने पहले-पहल उसका प्रचार किया वे अज्ञानी कट्टर-पथी थे, परंतु सच्चे हृदयवाले। वही विचार आजकल समता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के विचारों के रूप में प्रकट हुआ है। यह भी अंधविश्वास है। सच्ची समानता न संसार में पहले कभी हुई है, न होगी। हम सब यहाँ समान कैसे हो सकते हैं? इस असंभव साम्य का अर्थ है मृत्यु। यह संसार संसार क्यों है? वैपम्य से। आदि दशा में जिसे अव्यक्त कहा जाता है, पूर्ण समानता रहती है। सृष्टि की कार्यकारिणी शक्तियों तब कैसे जन्मती हैं? युद्ध कर, होड़ाहोड़ी और संघर्ष द्वारा। मान लो सृष्टि के सभी परमाणु समान हो स्थिर हों, तब. क्या सृष्टिक्रम चल सकेगा? विज्ञान से हम जानते हैं, ऐसा होना असम्भव है। पानी की एक सतह में हलचल मचाने से परमाणु एक दूसरे को ओर दौड़कर शांत होने की चेष्टा करते हैं। इसी भाँति हमारा विश्व , उसमें की सभी वस्तुएँ उसी पूर्ण साम्य की दशा को पहुँचने के लिये आकुल हैं। एक हलचल फिर हो जाती है और फिर शक्तियों का भिन्न समूहों में मिलन होता है और सृष्टि होती है। विषमता ही सृष्टि का आधार है। साथ ही साम्य-लाभ करने की चेष्टा में तत्पर शक्तियाँ सृष्टि-क्रम. के लिये उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि वे शक्तियाँ जो इस शांति-लाभ में बाधा डालती हैं।