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कर्मयोग
 

हैं--बुद्ध और ईसा स्थान-स्थान पर जाकर उनका प्रचार करते हैं, पूरा करते हैं। गौतम बुद्ध के जीवन में हम बार-बार देखते हैं कि वे अपने आपको पच्चीसवाँ बुद्ध बताते हैं। उनके पूर्व के चौवीस बुद्धों का इतिहास नहीं, यद्यपि ज्ञात बुद्ध ने उन्हीं की डाली नीवों पर अपनी इमारत खड़ी की होगी। सबसे बड़ी विभूतियाँ शांत, अज्ञात, मौन होती हैं। उन्हीं को वास्तव में विचार की शक्ति का पता है; उन्हें विश्वास है, यदि वे गुफा में जाकर शिला से उसका द्वार वंदकर बैठ जायें और यहाँ केवल पाँच सत्य के विचार सोचकर मर जायें, तो वे विचार अनंतकाल तक रहेंगे। सचमुच ये विचार पर्वतों को भेद जायेंगे, समुद्र पार कर संसार भर में वे घूमेंगे ; वे मनुष्यों के अंतस्तल में प्रवेश करेंगे और उन व्यक्तियों को उन्नत बनायेंगे जो उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ करेंगे। ये सात्त्विक पुरुप ईश्वर के इतने निकट होते हैं कि क्रियाशील हो युद्ध करना, कर्मरत हो समर में भाग लेते हुये प्रचार करना, तथा जैसा कि कहा जाता है, मनुष्य-जाति का उपकार करना उनके लिये संभव नहीं। इन क्रियाशील पुरुषों में, वे कितने ही भले हों, थोड़ा-सा अज्ञान रह जात है। जब हमारी प्रकृति में कुछ अपवित्रता शेष रह जाती है, तभी हम कर्म कर सकते हैं। कर्म का धर्म ऐसा है कि साधारणतः आसक्ति और इच्छा से वह प्रेरित होता है। सतत क्रियाशील एक अनन्त सत्ता के समक्ष, जिसे प्रत्येक पखेरू का भी ध्यान रहता है, मनुष्य अपने कर्म पर कैसे गर्व कर सकता है ? ऐसा करना क्या पाप न