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कर्मयोग
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वस्तु अच्छी हो या बुरी या समान हो, मुझे उससे कोई मतलब नहीं में सब कुछ तुझ पर वारता हूँ।" दिन-रात हमें अपने दिखावटी अपनेपन को त्यागना चाहिये यहाँ तक कि वैसा करना स्वभाव में परिणत हो जाय, यहाँ तक कि रक्त- प्रवाह के साथ धमनियों और शिराओं में होता हुआ हमारे सारे शरीर को आत्म-त्याग के विचार का पूर्ण आज्ञाकारी बना दे। तब जाओ समरभूमि में जहाँ तो गरज रही हो, जहाँ युद्ध का हाहाकार मचा हुआ हो, वहाँ भी तुम अपने भीतर स्वतंत्रता और शान्ति का अनुभव करोगे।

कर्मयोग हमें सिखाता है कि कर्तव्य की साधारण धारणा निम्न सतह की है। फिर भी हम सबको अपना कर्तव्य करना है। तो भी हम देख सकते हैं, यह कर्त्तव्य का विचार कभी-कभी बड़ी विपत्तियों का कारण होता है। कर्त्तव्य हमारे लिये रोग हो जाता है, हमें निरंतर आगे की ओर खींचा करता है। कर्तव्य हमारे लिये बंधन-रूप हो जाता है और हमारे समस्त जीवन को दुःखमय बना देता है। मानव-जीवन का वह अभिशाप बन जाता है। "यह कर्तव्य, यह कर्तव्य का विचार वह मध्याह तपन है जो मनुष्य की अंतरात्मा को जला देता है। कर्तव्य के दासों की ओर देखिये । कर्तव्य के कारण उन्हें पूजा-पाठ, नहाने-धोने तक का समय नहीं । कर्तव्य का भूत उन पर सदा सवार रहता है। बाहर हैं तो कर्म में लगे हैं। कर्तव्य से पिंड नहीं छूटता। घर आते हैं तो कल जो कुछ करना है, उसका