विवेक से कर्म करना होता है। जिनका ईश्वर के प्रति विश्वास है, उनके लिये अन्य मार्ग हैं, जो सरलतर हैं। वे कर्म-फल ईश्वर पर छोड़ देते हैं ; वे कर्म करते हैं परन्तु फल में आसक्त नहीं रहते। जो कुछ भी वे करते हैं, देखते, सुनते या अनुभव करते हैं, वह सब ईश्वर के नाम पर। हम कैसा भी भला काम करें, हमें चाहिये, हम उसके लिये प्रशंसा की कामना न करें। कर्म ईश्वर का है ; फल भी उसको अर्पित हो । सर्वोत्कृष्ट कर्म हमें यह नहीं सोचने देता कि हमें उससे लाभ होगा किंवा हमने कोई शुभ- कर्म किया भी है। सब कर्म उसी का है। हमें चाहिये कि तटस्थ रहकर सोचें कि हम तो ईश की आज्ञा पालन करनेवाले उसके चाकर मात्र हैं ; कर्म करने की प्रेरणा प्रतिक्षण उसी स्वामी से होती है। "तू जो कुछ भी पूजता है, जो कुछ भी अनुभव करता है, जो कुछ भी कर्म करता है, तू वह सब ईश्वर को अर्पित कर शान्ति लाभ कर " हमें अपने भीतर पूर्णरूप से शान्ति स्थापन कर अपना मन और शरीर, अपनी प्रत्येक वस्तु ईश्वर के लिये किये गये एक निरन्तर यज्ञ में हुत कर देनी चाहिये। पुरानी विधि से अग्नि में द्रव्य डालकर यज्ञ करने के बदले यह महायज्ञ दिन-रात करो,-अपने छोटे-से अपनेपन का यज्ञ । “धन को खोजते हुये, तू ही वह धन है, जिसे मैंने पाया है ; मैं तेरे लिये अपनी बलि देता हूँ। प्रिय की खोज में तू वह प्यारा मिला है, जिसे मैं प्यार कर सकता हूँ। मैं तेरे लिये अपनी बलि देता हूँ।" हमें चाहिये दिन-रात हम यही जपें। "मेरा-मुझको कुछ नहीं
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कर्मयोग