पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१२०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
११२३
 

हैं, वैसे ही तुम संसार में रहोगे। इसी का नाम वैराग्य अथवा कर्मयोग की अनासक्ति है। मैं आप लोगों से कदाचित् कह चुका हूँ कि विना अनासक्ति के कोई योग संभव नहीं। जो व्यक्ति सुन्दर गृह, भोजन, वस्त्र त्यागकर बन में रहता है, संभव है अत्यंत आसक्त हो। उसके पास उसकी एकमात्र निधि शरीर ही उसकी परम प्रिय वस्तु हो । जब तक वह जियेगा, वह अपने शरीर के लिये ही अत्यंत व्याकुल रहेगा। अनासक्ति मन के भीतर होती है, उसका अर्थ शरीर के लिये किए गये किसी कर्म से नहीं। "मैं और मेरे का वन्धन शरीर में है। यदि शरीर से, ऐंद्रियता से हमारा सम्बन्ध टूट जाय, तो हम चाहे जहाँ, जैसे भी रहें, हम अनासक्त रहें। सिंहासन पर बैठा व्यक्ति पूर्ण रूप से अनासक्त हो सकता है, अन्य लँगोटी लगाये हुये भी अत्यंत आसक्त हो सकता है। पहले हमें इस अनासक्ति की दशा को पहुंचना है, फिर अनवरत कर्म करना। कर्मयोग हमें वह मार्ग बताता है, जिसका अनुसरण करते हुए हम आसक्ति से दूर हो सकेंगे। वास्तव में आसक्ति तजना अत्यंत कठिन है।

कर्मयोग में आसक्ति से मुक्त होने के दो मार्ग हैं। एक उनके लिये जो ईश्वर अथवा किसी बाहरी सहायता में विश्वास नहीं करते। उनके लिये यही मार्ग रह जाता है कि वे अपने ही ऊपर भरोसा करें; उन्हें अपनी इच्छा, अपनी मनःशक्ति से काम लेना होता है; अपने मन में यह कहकर कि "मैं अनासक्त हूँगा," उन्हें